Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--विद्रोही1


विद्रोही रबीन्द्रनाथ टैगोर

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लोग कहते हैं अंग्रेजी पढ़ना और भाड़ झोंकना बराबर है। अंग्रेजी पढ़ने वालों की मिट्टी खराब है। अच्छे-अच्छे एम.ए. और बी.ए. मारे-मारे फिरते हैं, कोई उन्हें पूछता तक नहीं। मैं इन बातों के विरुध्द हूं। अंग्रेजी पढ़-लिखकर मैं डॉक्टर बना हूं। अंग्रेजी शिक्षा के विरोधी तनिक आंख खोलकर मेरी दशा देखें।
सोमवार का दिन था। सवा नौ बजे मेरे मित्र बाबू सन्तोषकुमार बी.एस-सी. एक नवयुवक रोगी को साथ लिये मेरे दवाखाने में आये। उस रोगी की आयु अठारह-उन्नीस से अधिक न थी। गेहुआं रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, गठीला शरीर, कपड़े स्वदेशी, किन्तु मैले थे। सिर के बाल लम्बे और रूखे। उस युवक को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।
सन्तोषकुमार ने युवक का परिचय कराते हुए कहा- "आप जिला नदिया के निवासी हैं, नाम ललित कृष्ण बोस है, किन्तु ललित के नाम से प्रसिध्द हैं। एम.ए. में पढ़ते थे; परन्तु किसी कारणवश कॉलेज छोड़ दिया।"
मैंने मुस्कराते हुए पूछा- "आजकल आप क्या करते हैं?"
सन्तोषकुमार ने उत्तर दिया- "दो महीने पहले यह किरण प्रेस में प्रूफरीडर के काम पर थे परन्तु इस काम में जी न लगने के कारण नौकरी छोड़ दी। परसों से ज्वर से पीड़ित हैं, कोई अच्छी औषधि दीज़िए।"
आज से पहले भी मैंने इस युवक को कहीं देखा है, परन्तु कहां देखा है और कब? यह स्मरण नहीं। रोग की छान-बीन के पश्चात् मैंने ललित से कहा- "मालूम होता है, आप आवश्यकता से अधिक परिश्रम करते हैं, खैर, कोई बात नहीं दो दिन में आराम हो जायेगा।"
ललित बहुत मधुर-भाषी था। मैं उसकी बातों पर लट्टू हो गया। मैंने कहा- "हर तीन घण्टे के अन्तर से दवा पीजियेगा। दूध और साबूदाने के सिवाय कोई और चीज खाने की आवश्यकता नहीं। कल फिर आने का कष्ट कीजियेगा।"
ललित हंसने लगा। जाते समय मैंने उससे कल अवश्य आने के लिए कहा, परन्तु ललित ने शाम ही को आने का वचन दिया।
ललित प्रतिदिन सुबह-शाम मेरे यहां आने लगा। मैं उसके व्यवहार से बहुत प्रसन्न था। घंटों इधर-उधर की बातें होती थी। ललित वास्तव में ललित था। वह मनुष्य नहीं देवता था।
ललित अब मेरे घर पर ही रहने लगा। मेरा लड़का उमाशंकर आठवीं कक्षा में पढ़ता था। ललित ने कहा- "मैं इसको बंगला सिखाऊंगा बंगला बड़ी मधुर भाषा है।" मैं स्वयं भी यही चाहता था। उमाशंकर ने बंगला पढ़ना शुरू कर दिया, ललित आज से उमाशंकर का अध्यापक हो गया।

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